Shlok of Sanskrit with meaning in Hindi Shlok
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सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:ख भाग्भवेत्॥ अर्थ : सभी सुखी हों, सभी निरोगी हों, सभी को शुभ दर्शन हों और कोई दु:ख से ग्रसित न हो.
अष्टादस पुराणेषु व्यासस्य वचनं द्वयम् । परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ॥ अर्थ : अट्ठारह पुराणों में व्यास के दो ही वचन हैं : 1. परोपकार ही पुण्य है. और 2. दूसरों को दुःख देना पाप है![]()
गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः। गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म, तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ अर्थ : गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, गुरु ही शंकर है; गुरु ही साक्षात् परम् ब्रह्म है; उन सद्गुरु को प्रणाम.![]()
यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवताः। यत्र तास्तु न पूज्यंते तत्र सर्वाफलक्रियाः॥ अर्थ : जहाँ नारी की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं. जहाँ इनकी पूजा नहीं होती है, वहां सब व्यर्थ है.![]()
स्वगृहे पूज्यते मूर्खः स्वग्रामे पूज्यते प्रभुः। स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान्सर्वत्र पूज्यते॥ अर्थ : मूर्ख की अपने घर पूजा होती है, मुखिया की अपने गाँव में पूजा होती है, राजा की अपने देश में पूजा होती है विद्वान् की सब जगह पूजा होती है.![]()
शान्ति पाठ ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्ष शान्ति:पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति: वनस्पतय: शान्तिर्विश्वेदेवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:सर्वँ शान्ति: शान्तिरेव शान्ति:सामा शान्तिरेधि सुशान्तिर्भवतु। ॥ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: ॥ अर्थ :स्वर्ग लोक में शान्ति हो, अंतरिक्ष में शान्ति हो, पृथ्वी पर शान्ति हो, जल में शान्ति हो, औषधियां शान्त हों, वनस्पतियां शान्त हो, विश्व के देव शान्त हो, ब्रह्मदेव शान्त हों, सर्वत्र शान्ति हो, शान्ति ही शान्त हो, सम्पूर्ण शांति हो, मुझे शान्ति प्राप्त हो, सर्वत्र शुभ शान्ति हो. ॥ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति॥![]()
असतो मा सदगमय ॥ तमसो मा ज्योतिर्गमय ॥ मृत्योर्मामृतम् गमय ॥ अर्थ : हमको – असत्य से सत्य की ओर ले चलो। अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो.![]()
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥ अर्थ : “आपको अपने निर्धारित कर्तव्य का पालन करने का अधिकार है, लेकिन आप कभी कर्म फल की इच्छा से कर्म मत करो. (कर्म फल देने का अधिकार सिर्फ ईश्वर को है). कर्म फल की अपेक्षा से आप कभी कर्म न करें, न ही आपकी कभी कर्म न करने की प्रवृति हो. (आपकी हमेशा कर्म करने में प्रवृति हो).” – श्री कृष्ण भगवान (अर्जुन से कहा). कठिन शब्दों का अर्थ कर्मण्य = कर्म करना(work) एव = मात्र, Only अधिकार = Right ते = आपका कर्मफल = कर्म का परिणाम हेतु = कारण, इच्छा, motive भु = होना संग = साथ, जुड़ा हुआ अस्तु = होने देना, Let there be अकर्मणि = कर्म न करना![]()
Sanskrit Shlok Video
गायत्री मंत्र ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। अर्थ : उस प्राण स्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अंतःकरण में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे. अर्थात् सृष्टिकर्ता प्रकाशमान परमात्मा के प्रसिद्ध पवणीय तेज का (हम) ध्यान करते हैं, वे परमात्मा हमारी बुद्धि को (सत् की ओर) प्रेरित करें. कठिन शब्दों का अर्थ गायत्री – पंचमुख़ी देवी है, हमारी पांच इंद्रियों और प्राणों की देवी मानी जाती है. ॐ = प्रणव (वह शब्द, जिससे ईश्वर की अच्छी प्रकार से स्तुति की जाये ॐ) भूर = मनुष्य को प्राण प्रदान करने वाला भुवः = दुख़ों का नाश करने वाला स्वः = सुख़ प्रदान करने वाला तत = वह, सवितुर = सूर्य की भांति उज्जवल वरेण्यं = सबसे उत्तम भर्गो = कर्मों का उद्धार करने वाला देवस्य = प्रभु धीमहि = आत्म चिंतन के योग्य (ध्यान) धियो = बुद्धि यो = जो नः = हमारी प्रचोदयात् = हमें शक्ति दें (प्रार्थना)![]()
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत: । अभ्युथानम अधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम ॥ अर्थ : जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं अपने रूप को रचता हूँ यानि साकार रूप से संसार में प्रकट होता हूँ.![]()
षड् दोषा: पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता। निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता।। अर्थ : वैभव और उन्नति चाहने वाले पुरुष को ये छः दोषो का त्याग कर देना चाहिए : नींद, तन्द्रा (ऊंघना), डर, क्रोध, आलस्य तथा दीर्घ शत्रुता (कम समय लगने वाले कार्यो में अधिक समय नष्ट करना)।
उद्यमः साहसं धैर्यं बुद्धिः शक्तिः पराक्रमः। षडेते यत्र वर्तन्ते तत्र दैवं सहायकृत्।। अर्थ : उधम (जोखिम लेने वाला), साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति और पराक्रम यह 6 गुण जिस भी व्यक्ति के पास होते हैं, भगवान भी उसकी मदद करते हैं।![]()
किन्नु हित्वा प्रियो भवति। किन्नु हित्वा न सोचति।। किन्नु हित्वा अर्थवान् भवति। किन्नु हित्वा सुखी भवेत्।। अर्थ : मनुष्य किस चीज को छोड़कर प्रिय होता है? कौन सी चीज किसी का हित नहीं सोचती? किस चीज को त्याग कर व्यक्ति धनवान होता है? तथा किस चीज को त्याग कर सुखी होता है?![]()
मानं हित्वा प्रियो भवति। क्रोधं हित्वा न सोचति।। कामं हित्वा अर्थवान् भवति। लोभं हित्वा सुखी भवेत्।। अर्थ : अहंकार को त्याग कर मनुष्य प्रिय होता है, क्रोध ऐसी चीज है जो किसी का हित नहीं सोचती। कामेच्छा को त्याग कर व्यक्ति धनवान होता है तथा लोभ को त्याग कर व्यक्ति सुखी होता है।![]()
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।। नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ।। अर्थ : मनुष्य के शरीर में स्थित आलस्य ही मनुष्य का सबसे महान शत्रु होता है, तथा परिश्रम जैसा कोई मित्र नहीं होता, क्योंकि परिश्रम करने वाला व्यक्ति कभी दुखी नहीं होता, तथा आलस्य करने वाला व्यक्ति सदैव दुखी रहता है।![]()
अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम् ।। उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।। अर्थ : "यह अपना है", "वह पराया है" ऐसी सोच छोटे ह्रदय वाले लोगों की होती है। इसके विपरीत बड़े ह्रदय वाले लोगों के लिए सम्पूर्ण धरती ही उनके परिवार के समान होती है।![]()
श्लोक ऑफ़ संस्कृत विथ मीनिंग इन हिंदी
काकचेष्टा वकोध्यानं श्वाननिद्रा तथैव च। अल्पाहारी गृहत्यागी विद्यार्थी पंचलक्षणः।। अर्थ : कौए जैसा प्रयत्न, बगुले जैसा ध्यान, कुत्ते जैसी नींद, कम खाना और घर को छोड़। देना–विद्यार्थी के यह पाँच लक्षण होते हैं।![]()
एकेनापि सुपुत्रेण सिंही स्वपिति निर्भयम्।। सहैव दशभिः पुत्रैः भारं वहति रासभी।। अर्थ : एक अच्छा पुत्र होने से शेरनी वन में निडर होकर सोती है। परन्तु गधी दसियों पुत्रों के होने पर भी बोझा ढोती है।![]()
उद्यमेन हि सिद्धयन्ति कार्याणि न मनोरथैः। न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः।। अर्थ : कार्य परिश्रम से ही पूर्ण होते हैं, मन में सोचने से नहीं। जैसे सोते हुए सिंह के मुख में हिरण नहीं आते हैं।![]()
Shlok of Sanskrit In Hindi
गच्छन् पिपीलिको याति योजनानां शतान्यपि।। अगच्छन् वैनतेयोऽपि पदमेकं न गच्छति।। अर्थ : चलती हई चींटी भी सैकड़ों योजन चली जाती है, जबकि न चलने वाला गरुड़ एक कदम भी नहीं चल पाता।![]()
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः। चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्यायशोबलम्।। अर्थ : सभी को प्रणाम करने वालों तथा वृद्धों की नित्य सेवा करने वाले पुरुषों की आयु, विद्या, यश और बल ये चार वस्तुएँ बढ़ती हैं।![]()
अपि स्वर्णमयीलङ्का न मे लक्ष्मण रोचते। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ।। अर्थ : हे लक्ष्मण!यद्यपि यह लंका सोने की है। फिर भी यह मुझे अच्छी नहीं लगती क्योंकि माता तथा जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर होती है ?![]()
दीपो भक्षयते ध्वान्तं कज्जलं च प्रसूयते। यदन्नं भक्ष्यते नित्यं जायते तादृशी प्रजा।। अर्थ : जिस प्रकार दीपक अन्धकार को खाकर नष्ट करक. काजल पैदा करता प्रकार जैसा अन्न खाया जाता है, उसी प्रकार की सन्तान पैदा होती है।![]()
सत्यं ब्रूयात् प्रियम् ब्रूयात् ब्रूयात् सत्यमप्रियम्। प्रियम् च नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः।। अर्थ : सत्य बोलना चाहिए और प्रिय बोलना चाहिये। अप्रिय सत्य नहीं बोलना चाहिये और प्यारा झूठ भी नहीं बोलना चाहिये। यही सनातन धर्म है।![]()
सर्वतीर्थमयी माता सर्वदेवमयः पिता। मातरं पितरं तस्मात् सर्वयत्नेन पूज्येत्।। अर्थ : माता सम्पूर्ण तीर्थ स्वरूपा है तथा पिता सब देवों के स्वरूप हैं। इसलिए माता और पिता की सभी यत्नों से पूजा करनी चाहिये।![]()
माता शत्रु पिता बैरी येन बालो न पाठितः।। न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये वको यथा।। अर्थ : वह माता शत्रु तथा पिता बैरी है,जिसने अपने बालक को नहीं पढ़ाया। जैसे हंसों के मध्य बगुला शोभा नहीं देता, ऐसे ही सभा में बिना पढ़ा बालक शोभा नहीं देता।![]()
Shlok of Sanskrit Language
नास्ति लोभसमो व्याधिः नास्ति क्रोधसमो रिपुः। नास्ति दारिद्रयवद् दुःखं नास्ति ज्ञानात्परं सुखम्।। अर्थ : लोभ के समान कोई दूसरा रोग नहीं है, क्रोध के समान कोई शत्रु नहीं है। दरिद्रता के समान कोई दु:ख नहीं है, ज्ञान से बड़ा कोई सुख नहीं है।![]()
प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः। तस्मात्तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता।। अर्थ : सभी प्राणी प्रिय मीठा. बोलने से प्रसन्न होते हैं। इसलिए प्रिय और मधुर वाक्य ही बोलने चाहिये। मृदु बोलने में दरिद्रता कंजूसी. कैसी?![]()
नाभिषेको न संस्कारः सिंहस्य क्रियते मृगैः।। विक्रमार्जितसत्त्वस्य स्वमेव मृगेन्द्रता।। अर्थ : पशुओं हिरणों. द्वारा शेर का न अभिषेक ही किया जाता है और न ही संस्कार किया जाता है। स्वयं ही सिंह अपने पराक्रम से पशुओं का राजा बन जाता है।
उदेति सविता ताम्रस्ताप एवास्तमेति च।। सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता।। अर्थ : सूर्य लाल ही उदय होता है और सूर्य लाल ही अस्त होता है। उसी प्रकार सम्पत्ति और विपत्ति में महापुरुष एक समान रहते हैं।![]()
वदन प्रसादसदनं सदयं हृदयं सुधामुचोवाचः।। करणं परोपकरणं येषां न, ते वन्द्याः।। अर्थ : जिनका मुख प्रसन्नता का घर है, हृदय दया से युक्त है, अमृत के समान मधुर वाणी है।। जो सदा परोपकार करते हैं, वे किसके वन्दनीय नहीं होते हैं।![]()
Best Shlok of Sanskrit
पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम्। मूढ़ः पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधीयते।। अर्थ : पृथ्वी पर जल, अन्न और मधुर वचन यह तीन ही रत्न हैं, जबकि मूर्ख जन पत्थर के टुकड़ों को रत्न कहते हैं।![]()
काकः कृष्णः पिकः कृष्णः को भेदः पिककाकायोः। बसन्ते समुपायाते काकः पिकः पिकः।। अर्थ : कौआ काला है, कोयल भी काली है, फिर कौआ और कोयल दोनों में भेद क्या है? बसन्त ऋतु के आने पर कोयल, कोयल होती है और कौआ, कौआ होता है अर्थात् दोनों का भेद प्रकट हो जाता है।![]()
शनैः पन्थाः शनैः कन्थाः शनैः पर्वतलङ्घनम्।। शनैर्विद्याः शनैर्वित्तं पञ्चैतानि शनैः शनैः।। अर्थ : मार्ग चलने में, वस्त्र निर्माण में, पर्वत को लाँघने में, विद्या पढ़ने में और धन अर्जन में ये पाँचों कार्य धीरे-धीरे करने चाहिये।![]()
Sanskrit Shlok NCERT
दरिद्रता धीरतया विराजते कुरूपता शीलतया विराजते।। कभोजनं चोष्णतया विराजते कुवस्रता शुभ्रतया विराजते।। अर्थ : धैर्य से गरीबी शोभित होती है, उत्तम स्वभाव या व्यवहार से कुरूपता शोभा पाती है। गर्म करने से बुरा भोजन ठण्डा. भी अच्छा हो जाता है तथा स्वच्छता से बुरा वस्त्र भी शोभित होता है।![]()
उत्साहसम्पन्नमदीर्घसूत्रं क्रियाविधिज्ञ व्यसनेव्यसक्तम्। शुर कृतज्ञं दृढ़सौहृदञ्च, लक्ष्मीः स्वयं याति निवासहेतोः।। अर्थ : उत्साह से पर्ण, आलस्य न करने वाले, कार्य की विधि को जानने वाले, बुरे कामों में न फंसने वाले वीर अहसान मानने वाले, पक्की मित्रता रखने वाले पुरुष के पास रहने के लिए लक्ष्मी स्वयं जाती है।![]()
Sanskrit Slokas With Meaning in English
दानेन तल्यो निधिरस्ति नान्यों लोभाच्च नान्योऽस्ति रिपुः पृथिव्याम्। विभषणं शीलसमं न चान्यत्, सन्तोषतुल्यं धनमस्ति नान्यत्।। अर्थ : दान के बराबर दसरा कोई और खजाना नहीं है, लोभ के बराबर पृथ्वी पर दूसरा कोई शत्रु नहीं है, विनम्रता के समान कोई दूसरा आभूषण नहीं है और सन्तोष के बराबर कोई धन नहीं।![]()
विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा, सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः। यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ, प्रकृतिसिद्धिमिदं हि महात्मनाम्।। अर्थ : संकट के समय धैर्य, उन्नति में क्षमा, सभा में वाणी बोलने की चतुरता, युद्ध में पराक्रम कीर्ति में इच्छा तथा वेद शास्त्रों को सुनने की लगन ये गुण महान् व्यक्तियों में स्वभाव से ही होते हैं।![]()
10 Shlok of Sanskrit
पापान्निवारयति योजयते हिताय, गुह्यं निगूहति गुणान् प्रकटीकरोति। आपदगतं च न जहाति ददाति काले, सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः।। अर्थ : उत्तम मित्र अपने भित्र को पापों से दूर करता है, हित भलाई. के कार्यों में लगाता है, उसकी गुप्त बातों को छिपाता है, गुणों को दर्शाता है प्रकट करता है, आपत्ति पड़ने पर साथ नहीं छोड़ता, समय पड़ने पर सहायता करता है। महान् पुरुषों ने अच्छे मित्र के यही लक्षण बताये हैं।
निन्दन्तु नीतिनिपुणाः यदि वा स्तुवन्तु, लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।। अद्यैव वा मरणस्तु युगान्तरे वा, न्याय्यात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः।। अर्थ : नीति में निपुण लोगों की चाहें निन्दा करें अथवा प्रशंसा, लक्ष्मी आये या अपनी इच्छानुसार चली जाये, मृत्यु आज ही हो जाय या युग के बाद हो लेकिन धैर्यशाली पुरुष न्याय के मार्ग से एक कदम पीछे नहीं हटते।।![]()
साहित्य संगीन कलाविहीनः। साक्षात् पशुः पुच्छविषाणहीनः। तृणं न खादन्नपि जीवमानः। तद्भागधेयं परमं पशूनाम्।। अर्थ : जो व्यक्ति साहित्य संगीत व कला से रहित है, वह पूँछ तथा सींगों बिना साक्षात् पशु के समान है। यह पशुओं के लिए सौभाग्य की बात है कि ऐसा व्यक्ति चारा न खाते हुए भी जीवन धारण करता है।![]()
सम्पदि यस्य न हर्षो विपदि विषादो रणे न भीरुत्वम्। तं भुवनत्रयतिलकं जनयति जननी सुतं विरलम्।। अर्थ : जिसको सुख सम्पत्ति. में प्रसन्न न हो, संकट विपत्ति. में दु:ख न हो, युद्ध में भय अथवा कायरता न हो, तीनों लोगों में महान् ऐसे किसी पुत्र को ही माता कभी-कभी ही जन्म देती है।
Shlok Sanskrit Mein
त्याज्यं न धैर्यं विधुरेऽपि काले, धैर्यात् कदाचित् स्थितिमाप्नुयात् सः। जाते समुद्रेऽपि हि पोत भंगे, सांयात्रिकों वाञ्छति तर्तुमेव।। अर्थ : संकट में भी मनुष्य को. धीरज नहीं छोड़ना चाहिये, सम्भव है धैर्य से स्थिति में कभी सुधार आ जावे। जैसे समुद्र में जहाज के नष्ट हो जाने पर यात्री तैरने की ही इच्छा करना चाहता है।![]()
अन्नाद्भवन्ति भूतानि, पर्जन्यादन्नसम्भवः।। यज्ञाद्भवति पर्जन्यो, यज्ञः कर्मसमुद्भवः।। अर्थ : सम्पूर्ण प्राणी अन्न से पैदा होते हैं तथा अन्न की उत्पत्ति वर्षा से होती है, वर्षा यज्ञ से और यज्ञ कर्म से पैदा होता है।
चञ्चलं हि मनः कृष्णः! प्रमाथि वलवद् दृढ़म्। तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।। अर्थ : हे कृष्ण ! यह मन बड़ा चंचल, मथ डालने वाला बलवान तथा अत्यन्त मजबूत है। मैं इसको वश में करना, हवा को वश में करने के समान अत्यन्त कठिन मानता हूँ।![]()
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः।। हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः।। अर्थ : जिससे कोई जीव दु:खी नहीं होता है तथा जो स्वयं भी किसी जीव से दु:खी नहीं होता है तथा जो प्रसन्नता, मानसिक संताप, भय और दु:खों से रहित है, वही भक्त मेरा प्यारा है।![]()
Shlok Sanskrit Mein Arth Sahit
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण! न च राज्यं सुखानि च। कि नो राज्येन गोविन्द! कि भोगैर्जीवितेन वा।। अर्थ : हे कृष्ण! मैं विजय की इच्छा नहीं चाहता, राज्य तथा सुखों को पाने की भी मेरी इच्छा नहीं है। हे गोविन्द ! हमें राज्य भोग अथवा जीवित रहने से क्या अर्थ है?![]()
Sanskrit Shloka From Bhagavad Gita
सुखदुःखे समे कृत्वा, लाभालाभौ जयाजयौ।। ततो युद्धाय युज्यस्व नैब पापमवाप्स्यसि।। अर्थ : हे अर्जुन! सुख-दु:ख, लाभ-हानि, जीत-हार आदि सभी को समान समझकर युद्ध के लिए तैयार हो जाओ। तुम को पाप नहीं लगेगा अर्थात् पापी नहीं कहलाओगे।![]()
Shlok of Sanskrit Mahabhrat
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः। तत्र श्रीर्विजयो भूतिधुवा नीतिर्मतिर्मम्।। अर्थ : जहाँ योगेश्वर कृष्ण हैं और जहाँ धनुषधारी अर्जुन हैं, वहाँ विजय तथा निश्चय ही कल्याण है। यही मेरी राय तथा नीति है।![]()
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते। क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतम।। अर्थ : हे अर्जुन! तू कायरता को प्राप्त मत हो क्योंकि तेरे लिए यह उचित नहीं है हृदय की इस तुच्छ दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़ा हो जा।![]()
Sanskrit Shlok Class 8
वासासि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही।। अर्थ : जिस प्रकार मनुष्य पुराने जीर्ण-शीर्ण वस्त्रों को त्याग कर दूसरे नये वस्त्रों को धारण करता है। उसी प्रकार जीवात्मा पुराने शरीर को त्याग कर नये शरीर में प्रवेश करती है।![]()
नैनं छिन्दति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्तापो न शोषयति मारुतः।। अर्थ : इस आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न अग्नि जला सकती है, पानी इसको गला नहीं सकता तथा वायु इसे सुखा नहीं सकती।![]()
Sanskrit Shlok on Vidya
विद्या ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम्। पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम्॥ अर्थ : विद्या से विनय नम्रता आती है, विनय से पात्रता सजनता आती है पात्रता से धन की प्राप्ति होती है, धन से धर्म और धर्म से सुख की प्राप्ति होती है ।![]()
विद्याभ्यास स्तपो ज्ञानमिन्द्रियाणां च संयमः। अहिंसा गुरुसेवा च निःश्रेयसकरं परम् ॥ अर्थ : विद्याभ्यास, तप, ज्ञान, इंद्रिय-संयम, अहिंसा और गुरुसेवा ये परम् कल्याणकारक हैं![]()
Sanskrit Shlok on Beauty
रूपयौवनसंपन्ना विशाल कुलसम्भवाः । विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः ॥ अर्थ : रुपसंपन्न, यौवनसंपन्न, और चाहे विशाल कुल में पैदा क्यों न हुए हों, पर जो विद्याहीन हों, तो वे सुगंधरहित केसुडे के फूल की भाँति शोभा नहीं देते।![]()
अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम् । अधनस्य कुतो मित्रममित्रस्य कुतः सुखम् ॥ अर्थ : आलसी इन्सान को विद्या कहाँ? विद्याविहीन को धन कहाँ ? धनविहीन को मित्र कहाँ ? और मित्रविहीन को सुख कहाँ ?![]()
Sanskrit Shlok Class 7
संयोजयति विद्यैव नीचगापि नरं सरित् । समुद्रमिव दुर्धर्षं नृपं भाग्यमतः परम् ॥ अर्थ : प्रवाह में बहेनेवाली नदी नाव में बैठे हुए इन्सान को न पहुँच पानेवाले समंदर तक पहुँचाती है, वैसे हि निम्न जाति में गयी हुई विद्या भी, उस इन्सान को राजा का समागम करा देती है; और राजा का समागम होने के बाद उसका भाग्य खील उठता है।![]()
कुत्र विधेयो यत्नः विद्याभ्यासे सदौषधे दाने । अवधीरणा क्व कार्या खलपरयोषित्परधनेषु ॥ अर्थ : यत्न कहाँ करना ? विद्याभ्यास, सदौषध और परोपकार में। अनादर कहाँ करना ? दुर्जन, परायी स्त्री और परधन में ।![]()
Sanskrit Shlok Motivation
विद्याविनयोपेतो हरति न चेतांसि कस्य मनुजस्य । कांचनमणिसंयोगो नो जनयति कस्य लोचनानन्दम् ॥ अर्थ : विद्यावान और विनयी पुरुष किस मनुष्य का चित्त हरण नहि करता ? सुवर्ण और मणि का संयोग किसकी आँखों को सुख नहि देता ?![]()
विद्या रूपं कुरूपाणां क्षमा रूपं तपस्विनाम् । कोकिलानां स्वरो रूपं स्त्रीणां रूपं पतिव्रतम् ॥ अर्थ : कुरुप का रुप विद्या है, तपस्वी का रुप क्षमा, कोकिला का रुप स्वर, तथा स्त्री का रुप पतिव्रत्य है।![]()
Shlok Synonyms Sanskrit
रूपयौवनसंपन्ना विशाल कुलसम्भवाः । विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः ॥ अर्थ : रुप संपन्न, यौवनसंपन्न, और चाहे विशाल कुल में पैदा क्यों न हुए हों, पर जो विद्याहीन हों, तो वे सुगंधरहित केसुडे के फूल की भाँति शोभा नहि देते ।![]()
माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः । न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा॥ अर्थ : जो अपने बालक को पढाते नहि, ऐसी माता शत्रु समान और पित वैरी है; क्यों कि हंसो के बीच बगुले की भाँति, ऐसा मनुष्य विद्वानों की सभा में शोभा नहि देता !![]()
Chanakya Shlok of Sanskrit
धर्म-धर्मादर्थः प्रभवति धर्मात्प्रभवते सुखम् । धर्मण लभते सर्वं धर्मप्रसारमिदं जगत् ॥ धर्म से ही धन, सुख तथा सब कुछ प्राप्त होता है । इस संसार में धर्म ही सार वस्तु है ।
सत्य -सत्यमेवेश्वरो लोके सत्ये धर्मः सदाश्रितः । सत्यमूलनि सर्वाणि सत्यान्नास्ति परं पदम् ॥ सत्य ही संसार में ईश्वर है; धर्म भी सत्य के ही आश्रित है; सत्य ही समस्त भव - विभव का मूल है; सत्य से बढ़कर और कुछ नहीं है ।
उत्साह-उत्साहो बलवानार्य नास्त्युत्साहात्परं बलम् । सोत्साहस्य हि लोकेषु न किञ्चदपि दुर्लभम् ॥ उत्साह बड़ा बलवान होता है; उत्साह से बढ़कर कोई बल नहीं है । उत्साही पुरुष के लिए संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं है ।
क्रोध - वाच्यावाच्यं प्रकुपितो न विजानाति कर्हिचित् । नाकार्यमस्ति क्रुद्धस्य नवाच्यं विद्यते क्वचित् ॥ क्रोध की दशा में मनुष्य को कहने और न कहने योग्य बातों का विवेक नहीं रहता । क्रुद्ध मनुष्य कुछ भी कह सकता है और कुछ भी बक सकता है । उसके लिए कुछ भी अकार्य और अवाच्य नहीं है ।
कर्मफल-यदाचरित कल्याणि ! शुभं वा यदि वाऽशुभम् । तदेव लभते भद्रे! कर्त्ता कर्मजमात्मनः ॥ मनुष्य जैसा भी अच्छा या बुरा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल मिलता है । कर्त्ता को अपने कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है ।
सुदुखं शयितः पूर्वं प्राप्येदं सुखमुत्तमम् । प्राप्तकालं न जानीते विश्वामित्रो यथा मुनिः ॥ किसी को जब बहुत दिनों तक अत्यधिक दुःख भोगने के बाद महान सुख मिलता है तो उसे विश्वामित्र मुनि की भांति समय का ज्ञान नहीं रहता सुख का अधिक समय भी थोड़ा ही जान पड़ता है ।
Shlok of Vedas
निरुत्साहस्य दीनस्य शोकपर्याकुलात्मनः । सर्वार्था व्यवसीदन्ति व्यसनं चाधिगच्छति ॥ उत्साह हीन, दीन और शोकाकुल मनुष्य के सभी काम बिगड़ जाते हैं , वह घोर विपत्ति में फंस जाता है ।
अपना-पराया-गुणगान् व परजनः स्वजनो निर्गुणोऽपि वा । निर्गणः स्वजनः श्रेयान् यः परः पर एव सः ॥ पराया मनुष्य भले ही गुणवान् हो तथा स्वजन सर्वथा गुणहीन ही क्यों न हो, लेकिन गुणी परजन से गुणहीन स्वजन ही भला होता है । अपना तो अपना है और पराया पराया ही रहता है ।
निषेवते प्रशस्तानी निन्दितानी न सेवते । अनास्तिकः श्रद्धान एतत् पण्डितलक्षणम् ॥ सद्गुण, शुभ कर्म, भगवान् के प्रति श्रद्धा और विश्वास, यज्ञ, दान, जनकल्याण आदि, ये सब ज्ञानीजन के शुभ- लक्षण होते हैं ।
क्रोधो हर्षश्च दर्पश्च ह्रीः स्तम्भो मान्यमानिता। यमर्थान् नापकर्षन्ति स वै पण्डित उच्यते ॥ जो व्यक्ति क्रोध, अहंकार, दुष्कर्म, अति-उत्साह, स्वार्थ, उद्दंडता इत्यादि दुर्गुणों की और आकर्षित नहीं होते, वे ही सच्चे ज्ञानी हैं ।
यस्य कृत्यं न विघ्नन्ति शीतमुष्णं भयं रतिः । समृद्धिरसमृद्धिर्वा स वै पण्डित उच्यते ॥ जो व्यक्ति सरदी-गरमी, अमीरी-गरीबी, प्रेम-धृणा इत्यादि विषय परिस्थितियों में भी विचलित नहीं होता और तटस्थ भाव से अपना राजधर्म निभाता है, वही सच्चा ज्ञानी है ।
क्षिप्रं विजानाति चिरं शृणोति विज्ञाय चार्थ भते न कामात्। नासम्पृष्टो व्युपयुङ्क्ते परार्थे तत् प्रज्ञानं प्रथमं पण्डितस्य ॥ ज्ञानी लोग किसी भी विषय को शीघ्र समझ लेते हैं, लेकिन उसे धैर्यपूर्वक देर तक सुनते रहते हैं । किसी भी कार्य को कर्तव्य समझकर करते है, कामना समझकर नहीं और व्यर्थ किसी के विषय में बात नहीं करते ।
आत्मज्ञानं समारम्भः तितिक्षा धर्मनित्यता । यमर्थान्नापकर्षन्ति स वै पण्डित उच्यते ॥ जो अपने योग्यता से भली-भाँति परिचित हो और उसी के अनुसार कल्याणकारी कार्य करता हो, जिसमें दुःख सहने की शक्ति हो, जो विपरीत स्थिति में भी धर्म-पथ से विमुख नहीं होता, ऐसा व्यक्ति ही सच्चा ज्ञानी कहलाता है ।
Shlok of Sanskrit Textbook
यस्य कृत्यं न जानन्ति मन्त्रं वा मन्त्रितं परे। कृतमेवास्य जानन्ति स वै पण्डित उच्यते ॥ दूसरे लोग जिसके कार्य, व्यवहार, गोपनीयता, सलाह और विचार को कार्य पूरा हो जाने के बाद ही जान पाते हैं, वही व्यक्ति ज्ञानी कहलाता है ।
यथाशक्ति चिकीर्षन्ति यथाशक्ति च कुर्वते। न किञ्चिदवमन्यन्ते नराः पण्डितबुद्धयः ॥ विवेकशील और बुद्धिमान व्यक्ति सदैव ये चेष्ठा करते हैं की वे यथाशक्ति कार्य करें और वे वैसा करते भी हैं तथा किसी वस्तु को तुच्छ समझकर उसकी उपेक्षा नहीं करते, वे ही सच्चे ज्ञानी हैं ।
नाप्राप्यमभिवाञ्छन्ति नष्टं नेच्छन्ति शोचितुम् । आपत्सु च न मुह्यन्ति नराः पण्डितबुद्धयः ॥ जो व्यक्ति दुर्लभ वस्तु को पाने की इच्छा नहीं रखते, नाशवान वस्तु के विषय में शोक नहीं करते तथा विपत्ति आ पड़ने पर घबराते नहीं हैं, डटकर उसका सामना करते हैं, वही ज्ञानी हैं ।
अग्निशेषमृणशेषं शत्रुशेषं तथैव च । पुन: पुन: प्रवर्धेत तस्माच्शेषं न कारयेत् ॥ यदि कोई आग, ऋण, या शत्रु अल्प मात्रा अथवा न्यूनतम सीमा तक भी अस्तित्व में बचा रहेगा तो बार बार बढ़ेगा ; अत: इन्हें थोड़ा सा भी बचा नही रहने देना चाहिए । इन तीनों को सम्पूर्ण रूप से समाप्त ही कर डालना चाहिए ।
नाभिषेको न संस्कार: सिंहस्य क्रियते मृगैः । विक्रमार्जितराज्यस्य स्वयमेव मृगेंद्रता ॥ वन्य जीव शेर का राज्याभिषेक (पवित्र जल छिड़काव) तथा कतिपय कर्मकांड के संचालन के माध्यम से ताजपोशी नहीं करते किन्तु वह अपने कौशल से ही कार्यभार और राजत्व को सहजता व सरलता से धारण कर लेता है
विद्वत्वं च नृपत्वं च न एव तुल्ये कदाचन्। स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते॥ विद्वता और राज्य अतुलनीय हैं, राजा को तो अपने राज्य में ही सम्मान मिलता है पर विद्वान का सर्वत्र सम्मान होता है|
पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम् । मूढै: पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा प्रदीयते ॥ पृथ्वी पर तीन ही रत्न हैं जल अन्न और अच्छे वचन । फिर भी मूर्ख पत्थर के टुकड़ों को रत्न कहते हैं ।
पातितोऽपि कराघातै-रुत्पतत्येव कन्दुकः। प्रायेण साधुवृत्तानाम-स्थायिन्यो विपत्तयः॥ हाथ से पटकी हुई गेंद भी भूमि पर गिरने के बाद ऊपर की ओर उठती है, सज्जनों का बुरा समय अधिकतर थोड़े समय के लिए ही होता है।
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियं। प्रियं च नानृतं ब्रूयात् एष धर्मः सनातनः॥ सत्य बोलें, प्रिय बोलें पर अप्रिय सत्य न बोलें और प्रिय असत्य न बोलें, ऐसी सनातन रीति है ॥
मूर्खस्य पञ्च चिन्हानि गर्वो दुर्वचनं तथा। क्रोधश्च दृढवादश्च परवाक्येष्वनादरः॥ मूर्खों के पाँच लक्षण हैं - गर्व, अपशब्द, क्रोध, हठ और दूसरों की बातों का अनादर॥
Short Shlok of Sanskrit
अतितॄष्णा न कर्तव्या तॄष्णां नैव परित्यजेत्। शनै: शनैश्च भोक्तव्यं स्वयं वित्तमुपार्जितम् ॥ अधिक इच्छाएं नहीं करनी चाहिए पर इच्छाओं का सर्वथा त्याग भी नहीं करना चाहिए। अपने कमाये हुए धन का धीरे-धीरे उपभोग करना चाहिये॥
कश्चित् कस्यचिन्मित्रं, न कश्चित् कस्यचित् रिपु:। अर्थतस्तु निबध्यन्ते, मित्राणि रिपवस्तथा ॥ न कोई किसी का मित्र है और न ही शत्रु, कार्यवश ही लोग मित्र और शत्रु बनते हैं ।
मूर्खशिष्योपदेशेन दुष्टास्त्रीभरणेन च। दुःखितैः सम्प्रयोगेण पण्डितोऽप्यवसीदति॥ मूर्ख शिष्य को पढ़ाने पर , दुष्ट स्त्री के साथ जीवन बिताने पर तथा दुःखियों- रोगियों के बीच में रहने पर विद्वान व्यक्ति भी दुःखी हो ही जाता है ।
दुष्टा भार्या शठं मित्रं भृत्यश्चोत्तरदायकः। ससर्पे गृहे वासो मृत्युरेव न संशयः॥ दुष्ट पत्नी , शठ मित्र , उत्तर देने वाला सेवक तथा सांप वाले घर में रहना , ये मृत्यु के कारण हैं इसमें सन्देह नहीं करनी चाहिए ।
धनिकः श्रोत्रियो राजा नदी वैद्यस्तु पञ्चमः। पञ्च यत्र न विद्यन्ते न तत्र दिवसे वसेत ॥ जहां कोई सेठ, वेदपाठी विद्वान, राजा और वैद्य न हो, जहां कोई नदी न हो, इन पांच स्थानों पर एक दिन भी नहीं रहना चाहिए ।
जानीयात्प्रेषणेभृत्यान् बान्धवान्व्यसनाऽऽगमे। मित्रं याऽऽपत्तिकालेषु भार्यां च विभवक्षये ॥ किसी महत्वपूर्ण कार्य पर भेज़ते समय सेवक की पहचान होती है । दुःख के समय में बन्धु-बान्धवों की, विपत्ति के समय मित्र की तथा धन नष्ट हो जाने पर पत्नी की परीक्षा होती है ।
Easy Shlok of Sanskrit
यस्मिन् देशे न सम्मानो न वृत्तिर्न च बान्धवाः। न च विद्यागमोऽप्यस्ति वासस्तत्र न कारयेत् ॥ जिस देश में सम्मान न हो, जहाँ कोई आजीविका न मिले , जहाँ अपना कोई भाई-बन्धु न रहता हो और जहाँ विद्या-अध्ययन सम्भव न हो, ऐसे स्थान पर नहीं रहना चाहिए ।
माता यस्य गृहे नास्ति भार्या चाप्रियवादिनी। अरण्यं तेन गन्तव्यं यथारण्यं तथा गृहम् ॥ जिसके घर में न माता हो और न स्त्री प्रियवादिनी हो , उसे वन में चले जाना चाहिए क्योंकि उसके लिए घर और वन दोनों समान ही हैं ।
आपदर्थे धनं रक्षेद् दारान् रक्षेद् धनैरपि। आत्मानं सततं रक्षेद् दारैरपि धनैरपि ॥ विपत्ति के समय के लिए धन की रक्षा करनी चाहिए । धन से अधिक रक्षा पत्नी की करनी चाहिए । किन्तु अपनी रक्षा का प्रसन सम्मुख आने पर धन और पत्नी का बलिदान भी करना पड़े तो नहीं चूकना चाहिए ।
लोकयात्रा भयं लज्जा दाक्षिण्यं त्यागशीलता। पञ्च यत्र न विद्यन्ते न कुर्यात्तत्र संगतिम् ॥ जिस स्थान पर आजीविका न मिले, लोगों में भय, और लज्जा, उदारता तथा दान देने की प्रवृत्ति न हो, ऐसी पांच जगहों को भी मनुष्य को अपने निवास के लिए नहीं चुनना चाहिए ।
आतुरे व्यसने प्राप्ते दुर्भिक्षे शत्रुसण्कटे। राजद्वारे श्मशाने च यात्तिष्ठति स बान्धवः ॥ जब कोई बीमार होने पर, असमय शत्रु से घिर जाने पर, राजकार्य में सहायक रूप में तथा मृत्यु पर श्मशान भूमि में ले जाने वाला व्यक्ति सच्चा मित्र और बन्धु है ।
अश्रुतश्च समुत्रद्धो दरिद्रश्य महामनाः। अर्थांश्चाकर्मणा प्रेप्सुर्मूढ इत्युच्यते बुधैः ॥ बिना पढ़े ही स्वयं को ज्ञानी समझकर अहंकार करने वाला, दरिद्र होकर भी बड़ी-बड़ी योजनाएँ बनाने वाला तथा बैठे-बिठाए धन पाने की कामना करने वाला व्यक्ति मूर्ख कहलाता है ।
Long Shlok of Sanskrit
स्वमर्थं यः परित्यज्य परार्थमनुतिष्ठति। मिथ्या चरति मित्रार्थे यश्च मूढः स उच्यते ॥ जो व्यक्ति अपना काम छोड़कर दूसरों के काम में हाथ डालता है तथा मित्र के कहने पर उसके गलत कार्यो में उसका साथ देता है, वह मूर्ख कहलाता है ।
अकामान् कामयति यः कामयानान् परित्यजेत्। बलवन्तं च यो द्वेष्टि तमाहुर्मूढचेतसम् ॥ जो व्यक्ति अपने हितैषियों को त्याग देता है तथा अपने शत्रुओं को गले लगाता है और जो अपने से शक्तिशाली लोगों से शत्रुता रखता है, उसे महामूर्ख कहते हैं।
शुश्रूषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणां तथा । ऊहापोहोऽर्थ विज्ञानं तत्त्वज्ञानं च धीगुणाः॥ शुश्रूषा, श्रवण, ग्रहण, धारण, चिंतन, उहापोह, अर्थविज्ञान, और तत्त्वज्ञान – ये बुद्धि के गुण हैं ।
निशानां च दिनानां च यथा ज्योतिः विभूषणम् । सतीनां च यतीनां च तथा शीलमखण्डितम् ॥ जैसे प्रकाश, दिन और रात का भूषण है, वैसे अखंडित शील, सतीयों और यतियों का भूषण है ।
न मुक्ताभि र्न माणिक्यैः न वस्त्रै र्न परिच्छदैः । अलङ्कियेत शीलेन केवलेन हि मानवः ॥ मोती, माणेक, वस्त्र या पहनावे से नहीं, पर केवल शील से हि इन्सान विभूषित होता है ।
विदेशेषु धनं विद्या व्यसनेषु धनं मतिः । परलोके धनं धर्मः शीलं सर्वत्र वै धनम् ॥ विदेश में विद्या धन, संकट में मति धन, परलोक में धर्म धन होता है । पर, शील तो सब जगह धन है ।
कीटोऽपि सुमनःसंगादारोहति सतां शिरः । अश्मापि याति देवत्वं महद्भिः सुप्रतिष्ठितः ॥ पुष्प के संग से कीडा भी अच्छे लोगों के मस्तक पर चढता है । बडे लोगों से प्रतिष्ठित किया गया पत्थर भी देव बनता है ।
सन्तोषः परमं सौख्यं सन्तोषः परममृतम् । सन्तोषः परमं पथ्यं सन्तोषः परमं हितम् ॥ संतोष, यह परम् सौख्य, परम् अमृत, परम् पथ्य और परम् हितकारक है ।
सन्तोषः परमो लाभः सत्सङ्गः परमा गतिः । विचारः परमं ज्ञानं शमो हि परमं सुखम् ॥ संतोष परम् बल है, सत्संग परम् गति है, विचार परम् ज्ञान है, और शम परम् सुख है ।
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English-
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Hindi-
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